इसके तहत हैलीकॉप्टर 250 मीटर से नीची उड़ान नहीं भर सकते, इसके बावजूद पर्यटन क्षेत्र से लोगों और सरकारी तंत्र ने कोई सबक नहीं सीखा।
मौजूदा हालात को देख कर यही लगता है कि सरकारी तंत्र को और किसी बड़े हादसे का इंतजार है, शायद इसी के बाद ऐसे मामले पर अंकुश लग सके।
हैलीकाप्टर संचालित करने वाली कंपनियां सिर्फ अपना मुनाफा वसूलने के लिए धार्मिक यात्रियों की जान जोखिम में डाल रही हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि सरकारी एजैंसियां कंपनियों की मनमानी रोकने में नाकाम रही हैं।
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वर्ष 2018 में नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी.) ने उत्तराखंड सरकार को हैलीकॉप्टर की उड़ान को नियंत्रित करने और संचालन की प्रक्रिया सुनिश्चित करने के निर्देश दिए थे।
हवाई उड़ान के लिए यह आवश्यक है कि हैलीकॉप्टर 2 हजार फीट की ऊंचाई से नीचे नहीं उड़े। इसकी ध्वनि की गति भी 50 डेसीबल निर्धारित की गई थी।
हैलीकॉप्टर के उड़ान भरते वक्त और उतरते वक्त ही ध्वनि की गति अधिक होने की छूट दी गई थी।
बेहतरीन रख-रखाव वाले हैलीकॉप्टर्स में ध्वनि की आवाज को निर्धारित मानदंडों के अनुरूप रखा जा सकता है।
जबकि पुराने हैलीकॉप्टर्स के साथ अधिक ध्वनि की समस्या आती है।
नीची उड़ान भरने से हैलीकॉप्टर्स के दुर्घटनाग्रस्त होने के खतरे के अलावा तेज आवाज से इस इलाके का वन्यजीवन भी प्रभावित होता है। वन्यजीवों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।
इल्ड लाइफ इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया ने वर्ष 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक नीची उड़ान भरने से होने वाले भारी ध्वनि प्रदूषण से वन्यजीवन प्रभावित हो रहा है। वन्यजीवों के स्वाभाविक बर्ताव में बदलाव आ रहा है।
हिमनद और पर्यावरण विशेषज्ञ पूर्व में ही केदारनाथ में बढ़ते पर्यटन के दबाव से प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी की चेतावनी दे चुके हैं।
इसके बावजूद पर्यटन क्षेत्र के लोगों और सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। करीब 11 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ में इस साल करीब 14.7 लाख यात्री पहुंचे।
इनमें करीब 1 लाख 3 हजार यात्री हैलीकॉप्टर के जरिए पहुंचे। यात्रियों की यह संख्या ही इस बात का प्रमाण है कि केदारनाथ का पर्वतीय इलाका कितना भारी दबाव झेल रहा है। इससे इस क्षेत्र का पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा रहा है।
इस इलाके में बर्फीले तूफान और भू-स्खलन की घटनाएं आम हो चुकी हैं।
पर्यावरण की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत संवेदनशील बनता जा रहा है।
खतरों के लिहाज से हिमस्खलन की 3 श्रेणियां होती हैं। पहला रैड जोन क्षेत्र, जहां हिमस्खलन में बर्फ का प्रभावी दबाव 3 टन प्रति वर्गमीटर होता है।
इतनी अधिक मात्रा में बर्फ के तेजी से नीचे खिसकने से भारी तबाही होती है।
दूसरा ब्लू जोन, जहां बर्फ का प्रभावी दबाव तीन टन प्रति वर्ग मीटर से कम होता है। आपदा के लिहाज से यह रैड जोन से थोड़ा कम खतरनाक होता है।
तीसरा येलो जोन, फिलहाल इन क्षेत्रों में हिमस्खलन की घटनाएं बेहद कम होती हैं, और यदि हुईं तो जानमाल के नुक्सान की संभावना कम रहती है।
केदारनाथ क्षेत्र में पिछले एक माह के भीतर हिमस्खलन की तीन घटनाएं हो चुकी हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जहां गर्मी और बारिश में बदलाव देखने को मिल रहा है, वहीं उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सितंबर-अक्तूूबर माह में ही बर्फबारी होने से हिमस्खलन की घटनाएं हो रही हैं।
जिन क्षेत्रों में हिमस्खलन की घटना हुई, वे उच्च हिमालयी क्षेत्र हैं और वहां पहाड़ों पर तीव्र ढलान है, जिससे ग्लेशियरों पर गिरने वाली बर्फ गुरुत्वाकर्षण के चलते तेजी से नीचे खिसक रही है।
लद्दाख क्षेत्र में कारगिल की पहाडिय़ां, गुरेज घाटी, हिमाचल प्रदेश में चंबा घाटी, कुल्लू घाटी और किन्नौर घाटी के अलावा उत्तराखंड में चमोली और रुद्रप्रयाग के उच्च हिमालयी क्षेत्र हिमस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं और यहां पूर्व में हिमस्खलन की बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं।
जिस रफ्तार से समूचा हिमालय क्षेत्र पर्यावरण संबंधी बदलाव झेल रहा है, वक्त रहते हुए उसे रोकने के लिए यदि बड़े कदम नहीं उठाए गए तो प्राकृतिक और मानवजनित हादसों को रोकना मुश्किल होगा।