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प्रथम विश्व युद्ध: जवान राइफलमैन शिब सिंह कैंतुरा तो नहीं पर 105 साल बाद वतन पहुंची सिर्फ आवाज, ऑडियो में खुले राज

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाल राइफल के सैनिक राइफलमैन शिब सिंह कैंतुरा की ऑडियो रिकार्डिंग एक सदी के बाद उनके वतन पहुंची है। शिब सिंह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के हाफ मून कैंप में युद्ध बंदी थे, जहां उनके जैसे सात हजार अन्य सैनिकों की आवाज के नमूने रिकार्ड किए गए थे। शिब सिंह घर नहीं लौट सके।

बर्लिन के हम्बोल्ट विवि में लुटार्चिव (साउंड अभिलेख) ने भारत में पत्रकार राजू गुसाईं को गढ़वाल राइफल्स के इस दिवंगत सैनिक की दुर्लभ रिकार्डिंग दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं। वह बताते हैं, वह इसी गांव के सैनिक देव सिंह और रति सिंह कैंतुरा का रिकार्ड तलाश रहे थे कि उन्हें इस रिकार्डिंग के बारे में पता चला।

रॉयल प्रशिया फोनोग्राफिक आयोग ने जर्मन पीओडब्ल्यू शिविरों में विदेशी सैनिकों के भाषण और संगीत को रिकार्ड किया, ताकि विदेशी भाषाई सर्वेक्षण को विस्तार मिले। युद्धबंदियों में तेलुगु, तमिल, हिंदी, पंजाबी, नेपाली, खासी, लिम्बू, अंग्रेजी, उर्दु, बंगाली, गुरुमुखी भाषा के सैनिकों की भी रिकार्डिंग की गई।

पहली/39वीं गढ़वाल राइफल्स के रेजिमेंटल नंबर-2396 शिब सिंह ने ऑडियो रिकार्डिंग में पैतृक गांव का नाम नहीं लिया है, लेकिन दस्तावेजों में गांव का नाम है। उनका जन्म जखोली रुद्रप्रयाग के लुथियाग गांव में हुआ था। यह जखोली से 20 किमी दूर है। तब ये गांव टिहरी रियासत का हिस्सा था। लुथियाग गांव के ही दीपक कैंतुरा बताते हैं कि उनके परदादा देव सिंह, रति सिंह कैंतुरा भी प्रथम विश्व युद्ध में लड़े और फ्रांस में शहीद हुए।

शिब सिंह उनके गांव के थे, लेकिन उनके परिजनों के बारे में किसी को जानकारी नहीं है। प्रथम विश्व युद्ध की युद्ध डायरी के दस्तावेज के पृष्ठ संख्या 184/4, खंड 27 के तहत जब शिब सिंह युद्ध बंदी शिविर से रिहा हुए तो उन्हें फुफ्फुस और ब्रोन्कोपमोनिया बीमारी थी। शिविर में भोजन, गंदगी, चिकित्सा सुविधा की कमी से वह संक्रामक रोग का शिकार हुए। जर्मन कैद से रिहाई के बाद 15 फरवरी 1919 को लंदन में उनका निधन हुआ।

दो जनवरी 1917 को रिकार्डेड आवाज में शिब सिंह अपने गांव, परिवार की स्थिति और अपने बचपन की यादों को साझा कर रहे हैं। वह रुद्रप्रयाग से 42 किमी दूर अपने स्कूल के दिनों की दिलचस्प कहानी बता रहे हैं। इसमें उन्होंने अपनी कक्षा के एक लड़के को थप्पड़ मार दिया। चूंकि प्रधानाचार्य उसके पिता के मित्र थे, इसलिए वे गांव के पास जंगल में भाग गए। तीन दिन तक जंगल में ही छिपे रहे। ये सोचकर ही बेहद भावुक लगता है कि सौ साल बाद उनके परिवार का कोई सदस्य अपने पूर्वज के इस ऑडियो को सुनकर कैसा महसूस करेगा।

उत्तराखंड के गीतों में सैनिकों का दर्द

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में जांबाज सैनिकों के रूप में सैन्य बहुल उत्तराखंड का भी शौर्य पूर्ण इतिहास रहा है। यहां के सैकड़ों उत्तराखंडी सैनिकों युद्ध में हिस्सा लिया। कई जवान वापस नहीं लौट पाए। उत्तराखंड में करीब 108 साल पुराने खुदेड़ (गीत की शैली) लोकगीत उस समय की स्थिति को बयां करते हैं।

लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने इन गीतों को गाया है। सात समोंदर पार ची जाणा ब्वै, जाज जौलू की नाव.., गीत के मुताबिक उत्तराखंड के किसी गांव से एक ही परिवार के सात भाई पहले विश्व युद्ध में हिस्सा लेने किसी ऐसे देश में जा रहे हैं, जिसके बारे में उन्हें कोई अंदाजा नहीं है। वह कितनी दूर है, वहां कैसे जाना होगा? वह आशंकित है कि घरवालों से दुबारा मिल पाएंगे या आवाज सुन पाएंगे? नरेन्द्र सिंह नेगी के मुताबिक पौड़ी में एक नेत्रहीन भरोसीलाल इस मार्मिक गीत को बस अड्डे पर गाते थे।

 

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