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नैनीताल में आज नवनियुक्त जिलाधिकारी वंदना सिंह ने कलेक्ट्रेट में ग्रहण किया कार्यभार:

आज सुबह उनके यहां पहुंचने पर अधिकारियों ने उनका स्वागत किया। जिले की नवनियुक्त डीएम वंदना सिंह ने अधिकारी कर्मचारियों को समय प्रबंधन का पाठ पढ़ाया।

साथ ही आम जन की छोटी समस्याओं को प्राथमिकता से लेने व त्वरित निदान के निर्देश दिए।

स्पष्ट किया कि फरियादी काम कराने के लिए बेवजह न भटके, इसका ध्यान रखा जाय।

2013 बैच की आइएएस अधिकारी वंदना इससे पूर्व पिथौरागढ़ में मुख्य विकास अधिकारी व डीएम रुद्रप्रयाग रहीं।

शासन में अपर सचिव व आयुक्त ग्राम्य विकास तथा निबंधक सहकारिता जैसे अहम पदों पर भी जिम्मेदारी निभा चुकी हैं।

नवागत डीएम वंदना सिंह को बुधवार को कलक्ट्रेट परिसर में गार्ड ऑॅफ ऑनर दिया गया।

इसके बाद कोषागार पंहुच उन्होंने विधिवत कार्यभार ग्रहण किया।

वहां बारीकी से जायजा ले डबल व सिंगल लॉक, सीसीएल, डीसीएल आदि का निरीक्षण किया।

साथ ही कलक्ट्रेट के विभिन्न पटलों का भी मुआयना किया।

संबंधित पटल सहायकों से जरूरी जानकारी ली। बाद में डीएम वंदना ने अधिकारियों व कर्मचारियों को दिशा निर्देश दिए।

साफ कहा कि फाइलें लंबित न रहें, इसका खास ध्यान रखा जाय। दैनिक कार्यों के साथ आमजन की छोटी से छोटी समस्या को गंभीरता से निस्तारित किया जाय।

ताकि लोगों को बेवजह इधर उधर न भटकना पड़े। साथ ही फाइलों का समयबद्ध निस्तारण व गुणवत्तापूर्ण की भी हिदायत दी।

यूपीएससी 2012 में आठवां स्थान और हिंदी माध्यम से पहला स्थान पाने वाली वंदना:

नैनीताल की डीएम बनी वंदना सिंह चौहान की आंखों में इंटरव्यू का दिन घूम गया।

हल्के पर्पल कलर की साड़ी में औसत कद की एक बहुत दुबली-पतली सी लड़की यूपीएससी की बिल्डिंग में इंटरव्यू के लिए पहुंची।

शुरू में थोड़ा डर लगा था, लेकिन फिर आधे घंटे तक चले इंटरव्यू में हर सवाल का आत्मविश्वास और हिम्मत से सामना किया।

बाहर निकलते हुए वंदना खुश थी। लेकिन उस दिन भी घर लौटकर उन्होंने आराम नहीं किया।

किताबें उठाईं और अगली आइएएस परीक्षा की तैयारी में जुट गईं।

यह रिजल्ट वंदना के लिए तो आश्चर्य ही था। यह पहली कोशिश थी।

कोई कोचिंग नहीं, कोई गाइडेंस नहीं। कोई पढ़ाने, समझने, बताने वाला नहीं।

आइएएस की तैयारी कर रहा कोई दोस्त नहीं। यहां तक कि वंदना कभी एक किताब खरीदने भी अपने घर से बाहर नहीं गईं।

किसी तपस्वी साधु की तरह एक साल तक अपने कमरे में बंद होकर सिर्फ और सिर्फ पढ़ती रहीं।

उन्हें तो अपने घर का रास्ता और मुहल्ले की गलियां भी ठीक से नहीं मालूम।

कोई घर का रास्ता पूछे तो वे नहीं बता पातीं। अर्जुन की तरह वंदना को सिर्फ चिड़‍िया की आंख मालूम है। वे कहती हैं, ‘‘बस, यही थी मेरी मंजिल।

वंदना का जन्म 4 अप्रैल, 1989 को हरियाणा के नसरुल्लागढ़ गांव के एक बेहद पारंपरिक परिवार में हुआ।

उनके घर में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था।

उनकी पहली पीढ़ी की कोई लड़की स्कूल नहीं गई थी। वंदना की शुरुआती पढ़ाई भी गांव के सरकारी स्कूल में हुई।

वंदना के पिता महिपाल सिंह चौहान कहते हैं, गांव में स्कूल अच्छा नहीं था। इसलिए अपने बड़े लड़के को मैंने पढऩे के लिए बाहर भेजा।

बस, उस दिन के बाद से वंदना की भी एक ही रट थी। मुझे कब भेजोगे पढऩे। महिपाल सिंह बताते हैं कि शुरू में तो मुझे भी यही लगता था कि लड़की है, इसे ज्यादा पढ़ाने की क्या जरूरत।

लेकिन मेधावी बिटिया की लगन और पढ़ाई के जज्बे ने उन्हें मजबूर कर दिया। वंदना ने एक दिन अपने पिता से गुस्से में कहा, मैं लड़की हूं, इसीलिए मुझे पढऩे नहीं भेज रहे।

महिपाल सिंह कहते हैं, बस, यही बात मेरे कलेजे में चुभ गई। मैंने सोच लिया कि मैं बिटिया को पढ़ने बाहर भेजूंगा।’’छठी क्लास के बाद वंदना मुरादाबाद के पास लड़कियों के गुरुकुल श्री दयानन्द कन्या गुरुकुल चोटीपुरा जिला अमरोहा भेज दिया।

वहां के नियम बड़े कठोर थे। कड़े अनुशासन में रहना पड़ता। खुद ही अपने कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना और यहां तक कि महीने में दो बार खाना बनाने में भी मदद करनी पड़ती थी।

हरियाणा के एक पिछड़े गांव से बेटी को बाहर पढऩे भेजने का फैसला महिपाल सिंह के लिए भी आसान नहीं था।

वंदना के दादा, ताया, चाचा और परिवार के तमाम पुरुष इस फैसले के खिलाफ थे।

वे कहते हैं, मैंने सबका गुस्सा झेला, सबकी नजरों में बुरा बना, लेकिन अपना फैसला नहीं बदला।

दसवीं के बाद ही वंदना की मंजिल तय हो चुकी थी। उस उम्र से ही वे कॉम्प्टीटिव मैग्जीन में टॉपर्स के इंटरव्यू पढ़तीं और उसकी कटिंग अपने पास रखतीं।

किताबों की लिस्ट बनातीं। कभी भाई से कहकर तो कभी ऑनलाइन किताबें मंगवाती।

बारहवीं तक गुरुकुल में पढ़ने के बाद वंदना ने घर पर रहकर ही लॉ की पढ़ाई की।

कभी कॉलेज नहीं गई। परीक्षा देने के लिए भी पिताजी साथ लेकर जाते थे। गुरुकुल में सीखा हुआ अनुशासन एक साल तैयारी के दौरान काम आया।

रोज तकरीबन 12-14 घंटे पढ़ाई करती। नींद आने लगती तो चलते-चलते पढ़ती थी।

वंदना की मां मिथिलेश कहती हैं, ‘‘पूरी गर्मियां वंदना ने अपने कमरे में कूलर नहीं लगाने दिया। कहती थी, ठंडक और आराम में नींद आती है।

वंदना गर्मी और पसीने में ही पढ़ती रहती ताकि नींद न आए।

एक साल तक घर के लोगों को भी उसके होने का आभास नहीं था।

मानो वह घर में मौजूद ही न हो। किसी को उसे डिस्टर्ब करने की इजाजत नहीं थी।

बड़े भाई की तीन साल की बेटी को भी नहीं। वंदना के साथ-साथ घर के सभी लोग सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।

उनकी वही दुनिया थी। आईएएस नहीं तो क्या? ‘‘कुछ नहीं। किसी दूसरे विकल्प के बारे में कभी सोचा ही नहीं।

वंदना की वही दुनिया थी। वही स्वप्न और वही मंजिल। उन्होंने बाहर की दुनिया कभी देखी ही नहीं।

कभी हरियाणा के बाहर कदम नहीं रखा। कभी सिनेमा हॉल में कोई फिल्म नहीं देखी।

कभी किसी पार्क और रेस्तरां में खाना नहीं खाया।

कभी दोस्तों के साथ पार्टी नहीं की। कभी कोई बॉयफ्रेंड नहीं रहा। कभी मनपसंद जींस-सैंडल की शॉपिंग नहीं की।

अब जब मंजिल मिल गई है तो वंदना अपनी सारी इच्छाएं पूरी करना चाहती है।

घुड़सवारी करना चाहती है और निशानेबाजी सीखना चाहती है। खूब घूमने की इच्छा है।

आज गांव के वही सारे लोग, जो कभी लड़की को पढ़ता देख मुंह बिचकाया करते थे, वंदना की सफलता पर गर्व से भरे हैं।

कह रहे हैं, लड़कियों को जरूर पढ़ाना चाहिए।

बिटिया पढ़ेगी तो नाम रौशन करेगी। यह कहते हुए महिपाल सिंह की आंखें भर आती हैं।

वे कहते हैं, ‘‘लड़की जात की बहुत बेकद्री हुई है। इन्हें हमेशा दबाकर रखा। पढऩे नहीं दिया।

अब इन लोगों को मौका मिलना चाहिए। मौका मिलने पर लड़की क्या कर सकती है, वंदना ने करके दिखा ही दिया है।

इन्होंने बता दिया छात्रों को कि हिन्दी माध्यम से भी यूपीएससी परीक्षा टॉप की जा सकती है।

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