INDIA

क्या यही है देश का औद्योगिक विकास:

औद्योगिक विनाशलीला:

यह स्थिति किसी एक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे भारत की है जहां उद्योग स्थापित हैं और जिनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है।

अब क्योंकि हम औद्योगिक उत्पादन में विश्व का सिरमौर बनना चाहते हैं तो इसके लिए किसी भी चीज की बलि दी जा सकती है, चाहे सेहत या सुरक्षा हो, खानपान या रहन सहन हो।

मजे की बात यह है कि इन सबके लिए भारी-भरकम नियम, कानून-कायदे हैं जिन्हें पढऩे, देखने और समझने की जरूरत तब पड़ती है जब कोई हादसा हो जाता है और धन संपत्ति नष्ट होती है तथा बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है।

उसके बाद लंबी अदालती कार्रवाई और मुआवजे का दौर चलता है।

कुछ बदलता नहीं बल्कि इंसानियत को ठेंगा दिखाते हुए औद्योगिक विकास के नाम पर शोषण, अत्याचार और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चलता रहता है।

एक अनुभव, वैसे तो लेखन और फिल्म निर्माण के अपने व्यवसाय के कारण अक्सर दूरदराज से लेकर गांव देहात, नगरों और महानगरों और बहुत प्रचारित स्मार्ट शहरों में आना जाना होता रहता है लेकिन इस बार जो अनुभव हुआ उसे पाठकों के साथ बांटने से यह उम्मीद है कि शायद सरकार और प्रशासन की नींद खुल सके।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा एक क्षेत्र है जिसमें सिंगरौली, रॉबटर्गंज, शनि नगर और समीपवर्ती इलाके आते हैं।

यहां पहुंचने के लिए वाराणसी से सड़क मार्ग से जाना था।

हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों की हालत में बहुत सुधार हुआ है, पक्की सड़कें बनी हैं, हाईवे पहले से ज्यादा सुविधाजनक हैं, लेकिन कुछ स्थानों पर जबरदस्त जाम और अनियंत्रित ट्रैफिक से भी जूझना पड़ता है।

यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है और यहां खनिज संपदा की बहुतायत है।

जंगल का क्षेत्र भी है जहां कभी लूटपाट से लेकर हत्या तक होने का डर लगा रहता था।

सुनसान इलाकों से सही सलामत गुजरना कठिन हुआ करता था लेकिन अब हालत में काफी सुधार है।

इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के कारण बहुत कुछ बदला है, नई बस्तियां बसी हैं, टाऊनशिप का निर्माण हुआ है और जरूरी सुविधाओं का विकास हुआ है।

उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में सरकारी और निजी औद्योगिक संस्थान लगाना फायदे का सौदा रहा है और इसी के साथ गैर कानूनी माइनिंग और तस्करी उद्योग भी बहुत तेजी से पनपा है।

माफिया गिरोह चाहे वन प्रदेश हो या मैदानी, सभी जगह सक्रिय हैं।

इनके साथ सरकारी कारिंदों और यहां तक कि पुलिस की मिलीभगत के किस्से आम हैं।

उदाहरण के लिए स्टोन क्रशर अनाधिकृत रूप से कब्जाई जमीन पर धड़ल्ले से चल रहे हैं।

पत्थरों की कटाई और पिसाई से निकला रेत इनकी कमाई का बहुत बड़ा साधन है।

अब इसका दूसरा पक्ष देखिए।

आप सड़क से जा रहे हैं, अचानक ऊपर कुछ धुंध और बादलों के घिरने का सा एहसास होता है और गाड़ी के शीशे खोलकर या बाहर निकलकर ताजी हवा में सांस लेनी चाही तो ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा।

क्रशरों से निकलता शोर कान के पर्दे फाड़ सकने की ताकत रखता है।

नाक की गंध और मुंह का स्वाद धूल मिट्टी और रेत फांकने जैसा हो जाता है।

रेत की तेज बौछार का भी सामना करना पड़ सकता है और पहने कपड़े झाडऩे पड़ सकते हैं।

अनुमान लगाइए कि ऐसे में जो मजदूर और दूसरे लोग यहां काम करने आते हैं, उनका क्या हाल होता होगा?

पूछने पर पता चला कि यह इलाका घर गरीबी के चंगुल में है और गांव के गांव वीरान होते जा रहे हैं।

बंधुआ मजदूरी की प्रथा देखनी हो तो यहां मिल सकती है।

यही नहीं लोगों की जीने की इच्छा नहीं रही क्योंकि तरह-तरह की बीमारियों से ये लोग घिरे रहते हैं। चलिए आगे बढ़ते हैं।

सड़क के दोनों ओर दूर से देखने पर पहाडिय़ों का भ्रम होता है।

जानकारी मिलती है कि ये रेत और मिट्टी के विशाल टीले हैं जो समय गुजरने के साथ प्रतिदिन ऊंचे होते जाते हैं।

जब हवा चलती है तो यह उड़ कर आसपास की बस्तियों के घरों में घुस जाते हैं और मुंह तथा चेहरे का रंग बिगाडऩे के साथ खाने का स्वाद भी कसैला और किरकिरा कर देते हैं।

क्या किया जा सकता है?

औद्योगिक विकास की गति को कम करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुक्सानदेह हो सकता है लेकिन कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं।

जिनसे जीवन पर विनाशकारी प्रभाव कम से कम पड़े।

इन उपायों में सबसे पहले नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अंतर्गत बने नियमों और आदेशों का कड़ाई से पालन अनिवार्य है।

इससे भी ज्यादा जरूरी बात कि जब हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने आधुनिक टैक्नोलॉजी विकसित कर ली है तो उनका इस्तेमाल इन संस्थानों द्वारा क्यों नहीं किया जाता ताकि जल और वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके।

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