ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कन्याकुमारी से श्रीनगर तक 4000 किलोमीटर से अधिक की पैदल यात्रा के दौरान उन्होंने जो 146 दिन सड़क पर बिताए हैं, और अलग-अलग लोगों के साथ जो उनकी बातचीत हुई है, उससे क्या राहुल को उनके अस्तित्वगत प्रश्न का समाधान मिला है, जो 2004 में पहली बार राजनीतिक प्रवेश करने के समय से ही उन्हें परेशान करता रहा है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर:
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने अपने आप को जिस तरह से पेश किया, उससे कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
पहली सफलता उनकी अद्भुत फिजिकल स्टैमिना और दृढ़ संकल्प है. ऐसा लगता है कि इस पैदल यात्रा के दौरान राहुल जिससे भी मिले और जुड़े थे उन सभी को इन दोनों फैक्टर (स्टैमिना और दृढ़ संकल्प) ने अभिभूत कर दिया।
दूसरा: लोगों के साथ उनका सहज व्यवहार. चाहे केरल में गांव की कोई बुजुर्ग महिला हो या तेलंगाना में एक छोटा बच्चा हो या महाराष्ट्र के सुदूर इलाके का कोई खेतिहर मजदूर या रघुराम राजन हों और फारूक अब्दुल्ला हो, सभी को राहुल गांधी ने मंत्रमुग्ध किया और हर किसी का दिल जीत लिया।
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तीसरी: आखिरकार उन्हें “पप्पू” का टैग हटाने में सफलता मिली, जो कि बीजेपी द्वारा उन पर चिपकाया गया था. उन्होंने जो रास्ता निर्धारित किया था, उस पर कायम रहे और यात्रा के दौरान आखिरी वक्त में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को शामिल करके उन्होंने अपने प्रशंसक और आलोचकों को समान रूप से आश्वस्त किया है।
खासकर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को उन्होंने यह दिखा दिया कि वे कोई अनिच्छुक पार्ट टाइम राजनेता नहीं है, जैसा कि पहले उन्हें दिखाने का प्रयास किया जा रहा था।
अगर भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य कांग्रेस की छवि में बड़ा बदलाव लाना था, तो राहुल गांधी पूरे आत्मविश्वास के साथ इस बदलाव को लाने में सफल रहे हैं।
उन्होंने यात्रा के दौरान विश्व हिंदू परिषद और राम मंदिर के ट्रस्टियों सहित हिंदू दक्षिणपंथी से भी प्रशंसा हासिल की है.
भारत जोड़ो यात्रा की विविध आयामों तक पहुंची।
चौथी सफलता: राहुल गांधी की खुद को एक ऐसे विचारक के रूप में गढ़ने की इच्छा जो दैनिक राजनीति की तुच्छ गंदगी से ऊपर हो।
गुरुओं और उनके जैसों द्वारा पसंद की जाने वाली लंबी दाढ़ी पर आप ध्यान दें, वैचारिक मुद्दों पर दक्षिणपंथी मोदी आरएसएस से विपरीत विचारधारा और एक गैर-राजनीतिक ब्रांडिंग पर जोर देने के लिए इस यात्रा में शामिल होने के लिए राम मंदिर के मुख्य पुजारी सहित पूर्व नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों और धार्मिक नेताओं को आमंत्रित करना।
राहुल गांधी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि वैचारिक युद्ध में लगे हुए हैं।
पांचवीं भी इसी से निकलती है: जब वे सड़क पर थे, तब उन्होंने विधानसभा चुनावों के प्रचार से दूर रहने का दृढ़ संकल्प दिखाया. हालांकि वो एक संक्षिप्त चुनावी रैली के लिए गुजरात गए, लेकिन वहां वे केवल इस वजह से गए थे, क्योंकि दबाव असहनीय हो गया था. लेकिन हिमाचल प्रदेश में प्रचार करने से उन्होंने साफ तौर पर इनकार कर दिया था।
छठवीं: राजस्थान में गहलोत-पायलट की जंग या केरल में थरूर बनाम अन्य की लड़ाई जैसे जटिल संगठनात्मक मुद्दों पर उनकी चुप्पी।
हालांकि यह कहा जा रहा है कि चूंकि भारत जोड़ो यात्रा समाप्त हो गई है, इसलिए पार्टी को तोड़ने वाले इन आंतरिक मतभेदों के बारे में अब निर्णय लिए जाएंगे।
यह और ज्यादा स्पष्ट होता जा रहा है कि संगठनात्मक मुद्दों को संभालने, बीजेपी को टक्कर देने के लिए एक चुनावी युद्ध मशीन बनाने या एक ऐसा राजनीतिक ढांचा तैयार करने जो कांग्रेस को फिर से प्रासंगिक बना सके, इनमें राहुल गांधी को बहुत कम या बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है।
क्या राहुल गांधी की रणनीति कांग्रेस को चुनाव जीतने में मदद कर सकती है?
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर गैर-गांधी की नियुक्ति का एक बड़ा कारण यह था कि राहुल गांधी को पार्टी संगठन चलाने के सिरदर्द या बोझ से राहत मिल जाएगी. जब तक राहुल गांधी जिनके साथ सहज है वे मुख्य पदों पर बने हुए हैं, वे छोटी-छोटी बातों को दूसरों पर छाेड़कर संतुष्ट हैं, जिसमें उनकी बहन प्रियंका निर्णय लेने में अहम भूमिका निभा रही हैं।
इस सब से एक अनिवार्य प्रश्न यह उठता है कि:आगे क्या?
राहुल गांधी की इस मैराथन यात्रा ने भले ही उनके लिए सद्भावना पैदा की हो और पार्टी कैडर को उत्साहित किया हो, लेकिन हर कांग्रेस कार्यकर्ता, पुरुष और महिला यह जानना चाहते हैं कि क्या यह बड़ा प्रयास पार्टी को चुनाव जिताकर और सत्ता में वापसी करा पाएगी।
मुख्य चुनौती यहीं पर है. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नौ राज्यों में चुनाव होने हैं. लगभग इन सभी राज्यों में कांग्रेस-बीजेपी आमने-सामने होंगी।
राजनीति में सफलता का एकमात्र पैमाना चुनावी जीत है. अगर कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव हार जाती है तो जिस तेजी से भारत जोड़ो यात्रा से कैडर उत्साहित हुए थे, उतनी ही तेजी से उनका विश्वास राहुल गांधी के प्रति कम हो सकता है।
राहुल गांधी की असली परीक्षा तो अब शुरू होती है. अगर वाकई में राहुल गांधी की मुख्य रुचि लोगों से मिलने और बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय भावना बनाने में है, तो उन्हें पुराने दिग्गजों के पदचिन्हों पर चलना होगा।
क्या भारत जोड़ो यात्रा बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर सकती है?
1977 में जयप्रकाश नारायण की बदौलत इंदिरा गांधी हार गईं थी. जयप्रकाश नारायण ही थे जिन्होंने इंदिरा के खिलाफ सार्वजनिक आक्रोश भड़काया था. वे देवीलाल ही थे, जिन्होंने 1989 में राजीव गांधी को हराने के लिए विपक्ष को एकजुट करने के लिए काफी समय और ऊर्जा लगायी थी।
राहुल गांधी के पास अपनी मां सोनिया गांधी का उदाहरण भी है, जिन्होंने सीपीआई (एम) के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ पर्दे के पीछे रहकर वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की रणनीति तैयार करने के लिए काम किया था।
इसके साथ ही उन्होंने, बीजेपी को केवल चुनावी जीत तक ही समेट दिया, जिसकी वजह से पहली बार केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का गठन हुआ।
यह तो वक्त ही बताएगा कि भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी ने क्या सबक सीखा है. लेकिन लेकिन उनके लिए समय निकलता जा रहा है. 2024 के चुनाव दूर नहीं हैं।
चाहे वह इसे पसंद करें या न करें, मोदी और बीजेपी के खिलाफ एक एकजुट विपक्षी चुनौती को आकार देने में उनकी भूमिका चुनावी लड़ाई के परिणाम को प्रभावित करेगी।