आयुर्वेदिक दिनचर्या में सबसे पहले ब्रह्म मुहुर्त उठना यानि सूर्योदय से डेड़ घन्टे पूर्व अर्थात (4:00-5:30 पूर्वाहन) यह वह समय है जब दिमाग शांत एवं सम्पूर्ण वातावरण प्रदूषण रहित रहता है।
मलोत्सर्ग (प्राकृतिक परिचर्या करना ) मल मूत्र इत्यादि के वेग को कभी नहीं रोकना चाहिए और न ही बलपूर्वक वेग करना चाहिए। वेगों को रोकने से कई रोग उत्पन्न हो सकते है।
दन्त धावन (दाँतों की रक्षा करना) प्रतिदिन नीम अथवा खदिर की दातून का प्रयोग करना चाहिए अथवा दशन संस्कार चूर्ण से मंजन करना चाहिए।
प्रतिमर्श नस्य प्रतिदिन अणु तैल की दो बूँद नाक में डालें। समय से पूर्व बालों के पकने को रोकता है तथा अच्छी स्मृति, सूंघने की शक्ति तथा गहरी निद्रा सुनिश्चित करता है।
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गंडूष (मुँह धावन क्रिया) 10 मिली, त्रिफला क्वाथ या नारियल/सरसों / तिल के तेल को पांच मिनट तक मुंह में रखकर घुमाएं। अत्यधिक प्यास, स्वाद में सुधार एवं मुख रोगों का निवारण करता है।
अभ्यंग (तेल मालिश) प्रतिदिन सरसों का तेल अथवा औषधीय तेल की पूरे शरीर में स्नान से पूर्व मालिश करें। यह त्वचा को स्निग्ध रखता है शरीर को वात रोगों से बचाता है तथा रक्त संचार में सुधार करता है।
व्यायाम अपनी क्षमता की आधी मात्रा तक व्यायाम करें । सहन-शक्ति एवं प्रतिरोधी शक्ति में वृद्धि तथा शरीरिक रक्त संचार में सुधार।
कफ संबंधी रोगों से बचाता है।
स्नान व्यायाम के आधे से एक घन्टे बाद स्नान करें।
भूख में सुधार शक्तिवर्धक तथा शारीरिक थकान को दूर करता है।
भोजन अपनी प्रकृति के अनुसार सदैव ताजा व ऊष्ण भोजन करें। व भोजन का समय निश्चित रखें, भोजन के तत्काल बाद व भोजन के मध्य में जल न पिएं।
निंद्रा (शयन) दिन के समय में निद्रा न लें।
निद्रा का समय निश्चित रखें। रात्रि में 8 बजे से 9 बजे के मध्य शयन प्रारंभ करने की आदत बनायें।
सम्यक निद्रा स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान करती है।