आचार्य सुमधुर शास्त्री ने बताया कि तीनों मूर्तिकारों को उत्तर भारत के कई मंदिरों में ले जाया गया ताकि उन्हें अवध की संस्कृति का पता चले. कई संत महंतों से मिलाया गया और पुस्तकें भी उन्हें दी गईं।
अयोध्या राम मंदिर में रामलला 22 जनवरी को विराजमान हो गए. पूरे देश ने इस दिन को दिवाली की तरह मनाया. घर-घर दिए जलाए गए और जगह-जगह भक्तों ने इस अवसर पर विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया।
रामलला की प्रतिमा इतनी मनमोहक है कि हर तरफ उसकी सुंदरता की चर्चा हो रही है. 5 साल के बाल स्वरूप में रामलला का मुख, मुस्कान और देह एकदम वैसी ही है जैसी इस उम्र के बच्चे की होती है।
मूर्ति को बनाने में 7 से 8 महीने का समय लगा. इस दौरान क्या-क्या हुआ, कैसे कार्य शुरू हुआ, मूर्तिकारों ने कैसे रामलला के बालस्वरूप को प्रस्तर शिला पर उकेरा, कार्यशाला से प्रभु राम की प्राण प्रतिष्ठा तक की पूरी कहानी आचार्य सुमधुर शास्त्री से जानते हैं।
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वह विग्रह के लिए प्रस्तर पर शिला पर पहली छेनी लगने से प्रतिमा पूरी होने के साक्षी हैं और गर्भ गृह में रामलला की स्थापना और उनका प्रथम श्रंगार भी आचार्य जी ने किया है।
सूत्रों के मुताबित, आचार्य सुमधुर शास्त्री ने बताया कि तीनों मूर्तिकारों ने जून के आखिर तक रामलला की मूर्ति बनाने का कार्य शुरू कर दिया था।
अरुण योगीराज जी का कार्य सबसे देरी से शुरू हुआ. दो योगीराज दक्षिण भारत से थे तो भाषा की बहुत दिक्कत हो रही थी. उन्हें टूटी-फूटी इंग्लिश में हर चीज समझाई जाती थी और उनके भाव से हम समझते थे कि उनकी आवश्यकता क्या है।
उन्होंने कहा कि मूर्ति बनाने में 7 से 8 महीने का समय लगा. ट्रस्ट ने विचार किया था कि भगवान के इन शारीरिक अनुपात के अलावा बाकी बाहरी प्रभा मंडल की छूट रहेगी।
मूर्तिकार अपने चिंतन और संकल्पना के आधार पर भगवान को जितना सुंदर से सुंदर स्वरूप दे सकते हैं. यह वह कर सकते हैं. कलाकार की कलाकृति स्वतंत्र विषय है।
मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के समय और कार्यशाला में जब मूर्ति को देखा था तो दोनों में फर्क यह था कि उनके नेत्रों से जब पट्टी हटी तो उनकी भाव भंगिम एकदम अलग थी।
आचार्य ने कहा कि नेत्र मिलन एक कार्य होता है, जिसमें देवता के नेत्र को एक दर्पण के समक्ष रखा जाता है।
नेत्रों का कार्य बहुत विशेष होता है क्योंकि मूर्तिकार यह विचार करता है कि जो हमारे देवता हैं उनकी दृष्टि गर्भगृह में दर्श्य करने वाले सभी भक्तों पर पड़े एक तरफ ना हो।
आचार्य सुमधुर शास्त्री ने बताया कि नेत्र का कार्य सिर्फ विश्वकर्मा करते हैं, जो मूर्तिकार होते हैं और किसी के समक्ष नहीं होता है. वह मूहूर्त होता है।
कर्मकोटि का पूजन होता है. पूजन के बाद जो प्रमुख मूर्तिकार और उसके सहयोगी होते हैं वही कार्यशाला में जाकर नेत्र बनाते हैं. उन्होंने ने कहा, ‘योगीराज ने बताया कि नेत्र सोने की छेनी और चांदी के हथौड़े से बनाए जाते हैं।
एक ही कोर वह देखते हैं कि क्या हमारा देवता सबको देख रहा है या देवता की दृष्टि सिर्फ एक तरफ है. जब समदर्शी भगवान होंगे तो सबका कल्याण होगा।
उन्होंने कहा कि जब तक नेत्र नहीं बने थे तब तक मूर्ति की भाव भंगिमा वैसी नहीं थी जैसी आज दिख रही है, लेकिन नेत्र बनने और नेत्रों से पट्टी हटने के बाद उनकी जो दृष्टि हमने देखी, हम लोगों को भी अंदाजा नहीं था कि भगवान वास्तव में इतने सुंदर दिखेंगे।
मूर्ति बनने के दौरान राम मंदिर निर्माण के अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र और ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय जी आते थे, देखने कि कार्य कैसा चल रहा है।
कार्य को देना और कार्य को करते हुए कलाकार का उत्साह वर्धन करना क्योंकि कलाकार बहुत जल्दी उत्साहित होते हैं और बहुत जल्दी हतोत्साहित भी हो जाते हैं इसलिए सबका उत्साह बना रहे इसके लिए ट्रस्ट ने बहुत सहयोग किया।
आचार्य ने बताया कि योगीराज पूछते थे कि उत्तर भारत के मंदिरों में मूर्ति का स्वरूप कैसा होता है तो इसके लिए सभी मूर्तिकारों को पास के कई मंदिरों में लेकर गए।
जहां अवध की संस्कृति है. कनक बिहार, कालेराम जी का दर्शन कराया गया ताकि वह समझें कि अयोध्या में राम जहां हैं वो राम कैसे दिखने चाहिए।
उन्होंने बताया कि मूर्तिकारों को मंदिरों की पूजा परंपरा से जुड़े संत-महंत से मिलाया और कुछ पुस्तकें उन्हें उपलब्ध करवाईं, जिससे वह भगवान के स्वरूप को बदलते हुए देख सकें।
उनकी संकल्पना में देवता कैसा है यह अलग विषय है किन्तु विश्व की संकल्पना में देवता कैसा होना चाहिए इसलिए विश्व स्तर पर चिंतन किया गया।