ये कहानी उत्तराखंड के पहाड़ में उस दौर से जुडी है जब पूरा क्षेत्र जंगलों से घिरा हुआ था, बाघ, तेंदुओं और हाथी की दहशत हुआ करती थी। पहाड़, नदी और जंगल से हरा भरा नैनीताल की तलहटी में बसा यह इलाका प्राकृतिक सौंदर्य से पूरिपूर्ण हुआ करता था। पहाड़ को मौदान से जोड़ने वाला यह आखिरी स्टेशन तब से एक भी कदम और आगे पहाड़ न चढ़ सका है।
व्यापार करने के लिए अंग्रेजों ने बिछाई पटरी
सन 1800 में अंग्रजों का भारत में शासन जाेरों से चल रहा था। मुम्बई, कलकत्ता, हैदराबाद, आगरा और लखनऊ के लिए उन्होंने ट्रेन की व्यवस्था कर ली थी, मगर उत्तरी पूर्व के लिए ट्रेन की पटरी तक नहीं बिछी थी। ऐसे में उन्हें इधर व्यवसाय करने में परेशानी हो रही थी। सो व्यापार के लिए उन्होंने काफी कोशिशें कर काठगोदाम तक रेल पटरी बिछा ली, लेकिन यहां से आगे पहाड़ होने के कारण रेल लाइन आगे न बना सके। उन्होंने 1870 के दशक में ही पटरियों की नींव रख दी थी। और इस तरह से पहाड़ का आखिरी स्टेशन कोठगोदाम बना। और पहली बार 24 अप्रैल 1884 में यहां पहली ट्रेन लखनऊ से आई
नैनीताल जिले के निचले हिस्से में गौला नदी के तट पर बसा है काठगोदाम। काठगोदाम को पहले चौहान पाटा के नाम से जाना जाता था। 1901 तक यह 300-350 की आबादी वाला एक गांव हुआ करता था। उस समय इंडिया के टिम्बर किंग नाम से पहचाने जाने वाले दान सिंह बिष्ट उर्फ दान सिंह ‘मालदार’ ने चौहान पाटा में लकड़ी के कई गोदाम बनाए। जिसके बाद से चौहानपाटा काठगोदाम के नाम से जाना जाने लगा।
दान सिंह मालदार मूल रूप से पिथौरागढ़ के रहने वाले थे और हल्द्वानी-अल्मोड़ा मार्ग पर बीर भट्टी में भी उनका घर था। काठगोदाम में घूमने लायक स्थानों में कालीचौड़ मंदिर और शीतला देवी मंदिर ,है। इसके अलवा गौला नदी ,भीमताल ,नैनीताल ,रानीबाग आदि प्रसिद्ध हैं। यह स्थान कुमाऊं मंडल के द्वार के रूप में प्रसिद्ध है ,तो यहाँ से आगे को घूमने के कई विकल्प खुल जाते हैं।