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जुगनू या मशाल, फैसला आपका

admin
Last updated: 2021/07/02 at 8:05 AM
admin
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टुल्सा नरसंहार के सौ बरस पूरे होने पर जो बाइडेन का पीड़ितों के प्रति सहृदयता दिखाना और साथ ही यह कहना कि ‘अंधेरा बहुत कुछ छुपा सकता है, यह कुछ भी नहीं मिटाता’ इस बात का प्रमाण है कि अब वे अमेरिका को सही मायनों में एक सभ्य और विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं। उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप ने तो अमेरिका फर्स्ट कहते हुए भी अमेरिका में लोकतांत्रिक विचारों और परंपराओं को बहुत नुकसान पहुंचाया है।

सिर्फ इसलिए कि इतिहास खामोश है इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा नहीं हुआ था। अंधेरा बहुत कुछ छुपा सकता है, यह कुछ भी नहीं मिटाता… मेरे साथी अमेरिकियों, यह दंगा नहीं, एक नरसंहार था।’

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने बीते दिनों टुल्सा नस्लीय नरसंहार के 100 साल पूरे होने पर पीड़ितों को श्रद्धांजलि देते हुए ये विचार प्रकट किए। खास बात ये है कि जो बाइडेन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जो नरसंहार के स्थान पर गए। गौरतलब है कि 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में ओक्लाहोमा के टुल्सा में ग्रीनवुड्स जिले में अश्वेेत उद्यमियों ने तेजी से विकास किया था। जल्द ही इस शहर ने अमेरिका के ‘ब्लैक वॉल स्ट्रीट’ के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। लेकिन 31 मई 1921 को एक श्वेेत लोगों की उन्मादी भीड़ ने यहां के समृद्ध अश्वेत समुदाय के लोगों का नस्लीय नरसंहार करते हुए लगभग 300 अश्वेत अमेरिकियों को मार डाला और लगभग 10,000 को बेघर कर दिया। यह अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े नस्लीय नरसंहार में से एक है। दरअसल एक मामूली घटना की आड़ में नस्लवाद की इस घिनौनी घटना को अंजाम दिया गया।

31 मई 1921 को 19 बरस के अश्वेत डिक रोलैंड ने लिफ्ट में लड़खड़ाने के कारण गलती से 17 बरस की एक  श्वेेत लड़की के कंधे को छू लिया था। इस घटना को श्वेत समर्थक अखबार ‘टुल्सा ट्रिब्यून’ ने अपने पहले पन्ने पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया और रोलैंड के ऊपर पीछा करने, मारपीट करने और बलात्कार जैसे संगीन आरोप लगा दिए। अखबार ने इस खबर का शीर्षक दिया ‘नैब नीग्रो फॉर अटैकिंग गर्ल इन एलीवेटर’। इस घटना से नरसंहार की शुरुआत हुई। इतनी भयावह घटना के बावजूद अमेरिका ने इस नरसंहार को बड़ी चालाकी से हाशिए पर डाले रखा। न इतिहास की किताबों में इसका जिक्र किया गया, न उस पर कोई चर्चा हुई। लेकिन जागरुक अमेरिकियों का एक तबका था, जिसे इस घटना पर जानबूझ कर ओढ़ी गई चुप्पी बर्दाश्त नहीं थी। इस जागरुकता के कारण ही 79 साल बाद वर्ष 2000 में इस नरसंहार को ओक्लाहोमा के पब्लिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। ताकि भावी पीढ़ी नस्लवाद के परिणामों और खतरों को समझ सके। एक सभ्य समाज में इन चीजों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, इतनी समझ इस पीढ़ी में आ सके।

अब टुल्सा नरसंहार के सौ बरस पूरे होने पर जो बाइडेन का पीड़ितों के प्रति सहृदयता दिखाना और साथ ही यह कहना कि ‘अंधेरा बहुत कुछ छुपा सकता है, यह कुछ भी नहीं टाता’ इस बात का प्रमाण है कि अब वे अमेरिका को सही मायनों में एक सभ्य और विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं। उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप ने तो अमेरिका फर्स्ट कहते हुए भी अमेरिका में लोकतांत्रिक विचारों और परंपराओं को बहुत नुकसान पहुंचाया है। वे नफरत को बढ़ावा देते नजर आते थे, जबकि बाइडेन की पहल से अश्वेतों के जख्मों पर न केवल मलहम लगी है, बल्कि भविष्य में समानता और न्याय की उम्मीदें भी बंधी हैं।

अमेरिका में पिछले साल जार्ज फ्लायड नामक अश्वेत की एक पुलिसकर्मी ने सजा के नाम पर हत्या कर दी थी, जिसके खिलाफ ब्लैक लाइव्स मैटर नामक आंदोलन खड़ा हुआ था और पूरी दुनिया में इसे समर्थन मिला था। अभी यूरो 2020 फुटबॉल खेलों के आयोजन में इंग्लैंड की टीम के सभी सदस्यों ने मिलकर तय किया है कि इस तरह के संस्थागत नस्लवाद के प्रति अपना विरोध जाहिर करते रहने के लिए और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन को समर्थन देने के लिए वह हर मैच की शुरूआत में अपने ‘घुटनों पर बैठैंगे।’

अमेरिका और इंग्लैंड, दोनों ही देश अपने नस्लवाद के कारण अतीत में कुख्यात रहे हैं और अब भी वहां यदा-कदा ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, जो इन देशों के विकसित और सभ्य होने पर सवालिया निशान लगाती हैं। लेकिन फिर जो बाइडेन या इंग्लैंड के फुटबॉल खिलाड़ियों ने जो पहल की है, उन्हें देखकर महसूस होता है कि सही अर्थों में हम सभ्य, संस्कारी या प्रगतिशील तभी हो सकते हैं, जब अपनी गलतियों को मानने और उन्हें आईंदा न दोहराने का साहस हममें हो। जो गलतियां हमारे पूर्वजों ने की, उसे तमगे की तरह पहने रहना और उन्हें दोहराते रहना, न सभ्यता की निशानी है, न बुद्धिमानी की। और इन गलतियों के साथ अगर विश्वगुरु होने या बनने का दावा किया जाए, तो यह देश और समाज के साथ सबसे बड़ी बेईमानी है।

आज से 19 साल पहले गुजरात में भी सांप्रदायिक दंगे हुए थे, जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हजार से अधिक लोग मारे गए थे, हालांकि असल आंकड़े इससे कहीं ज्यादा हैं। उस वक्त एक गर्भवती महिला का पेट चीर दिया गया था। वक्त बीतता रहा, गुजरात दंगों पर चर्चाएं जानबूझ कर बंद करने की कोशिश की गई और अगर कोई उस पर बात छेड़े तो बदले में 84 के दंगों की याद दिलाई जाती रही, मानो एक दंगे की गलती, दूसरे दंगे से मिटाई जा सकती है। 2002 से देश आगे तो बढ़ गया, लेकिन उस मानसिकता को पीछे नहीं छोड़ पाया। इसलिए कभी किसी पहलू खान, किसी अखलाक को मारने की घटनाएं होती रहीं। मॉब लिंचिंग यानी भीड़ की हिंसा जैसे शब्द समाज में इस तरह स्वीकार्य हो गए मानो हम आदिम युग में रह रहे हैं जहां एक जीते-जागते इंसान का कटा-फटा शरीर, उससे टपकता लहू किसी को विचलित ही नहीं करता। हिंसा के आदी हो चुके हम लोगों के लिए फिर एक खबर आई गाजियाबाद से, जहां एक मुस्लिम बुजुर्ग शख़्स के साथ मारपीट करने के बाद उनकी दाढ़ी काट दी गई। इस घटना के बाद अब्दुल समद का आपबीती बताते हुए एक वीडियो सामने आया, जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें कुछ लोग मुंह पर कपड़ा बांधकर कहीं ले गए और उन्हें जबरन जय सिया राम के नारे लगाने कहा। अब्दुल समद ने कहा कि मैं अल्लाह-अल्लाह कहता था तो मुझे मारते थे, मेरे हाथ-पांव बांध दिए थे। मेरी कनपटी पर उन्होंने पिस्तौल रख दी और मुझसे कहते थे कि आज हम तुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे। हालांकि  गाजियाबाद पुलिस का कहना है कि यह घटना सांप्रदायिक विद्वेष की नहीं है। इस मामले में पुलिस ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया है।

पुलिस के मुताबिक अब्दुल समद ताबीज बनाने का काम करता है। मारपीट के मुख्य अभियुक्त प्रवेश गुर्जर और बाक़ी लोगों ने उनसे ताबीज बनवाया था। लेकिन इस ताबीज से उनके परिवार पर उलटा असर हुआ और ग़ुस्से में आकर उन्होंने बुजुर्ग से मारपीट की। 5 जून की इस घटना पर सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने आलोचना की थी। लेकिन पुलिस ने अब कुछ लोगों पर प्राथमिकी दर्ज की है। पुलिस का कहना है कि इस तरह के झूठे ट्वीट्स सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने की कोशिश है और ऐसा करने वाले पत्रकारों और नेताओं ने सच जानने की कोशिश नहीं की और झूठी ख़बरें फैलाईं। इस मामले की कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी निंदा की थी, जिस पर उप्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने पलटवार किया था।

बहरहाल अगर यह निजी रंजिश का मामला है, तो इसे सांप्रदायिक रंग देना समाज और कानून के साथ खिलवाड़ है ही, उन सैकड़ों पीड़ितों के लिए न्याय के रास्ते में रुकावट डालना भी है, जो वाकई सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए हैं। पुलिस-प्रशासन को इस मामले की तह तक जाना चाहिए, ताकि पूरा सच सबके सामने आ सके। पिछले कई वर्षों से हमारे समाज में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के सामान्यीकरण की कोशिशें साजिशन जारी हैं। मीडिया अपनी सुविधा से ऐसी घटनाओं की व्याख्या करता है, जैसे टुल्सा ट्रिब्यून ने किया था। समाज में भी कमोबेश इसी सोच के साथ ऐसी घटनाओं को देखा जाने लगा है कि ये तो आए दिन की बात है। यही सबसे अधिक चिंता का विषय है। नफरत की ये छोटी-छोटी चिंगारी कब दावानल बनकर समाज को लील लेंगी, पता ही नहीं चलेगा। और आग फैलती है तो फिर ये नहीं देखती कि किसे बचाना है और किसे जलाना है। सभी इसकी चपेट में आते हैं।

मोहब्बत, ईर्ष्या, क्रोध, लालच की तरह नफरत भी इंसानी जज्बा है। जैसे मोहब्बत की यादें अमिट होती हैं, वैसे ही नफरत के निशां भी काफी गहरे होते हैं। जो समझदार होते हैं, वे अपने निशान को महज लीपापोती से छिपाते नहीं, बल्कि उसे पूरी तरह मिटाने के उपाय करते हैं। ऐसे देश तभी आगे बढ़ पाते हैं। जबकि अतीत की अंधेरी सुरंगों में घुसकर उज्ज्वल भविष्य की लफ्फाज़ी करने वाले अपने देश और समाज को अंधेरों में ही रखने का इंतजाम करते हैं और वादों के जुगनुओं से रौशनी का भरम देते हैं। अब देश को तय करना है कि उसे जुगनुओं की जरूरत है या मशाल की।

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admin July 2, 2021 July 2, 2021
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