संसद का मानसून सत्र जारी है। इस बीच शुक्रवार को मीडिया से बातचीत करते हुए गोरखपुर से भाजपा सांसद रवि किशन ने बताया कि वह जनसंख्या नियंत्रण पर एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश करने वाले हैं। भाजपा सांसद ने कहा, हम विश्व गुरु तभी बन सकते हैं जब जनसंख्या नियंत्रण पर कानून आए। इस बयान ने एक बार फिर जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर गंभीर बहस छेड़ दिया है। विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत, उसकी राजनीति, नागरिक स्वतंत्रता आदि की बात करने लगे हैं। आइए समझते हैं जनसंख्या नियंत्रण बिल से जुड़ी बारीकियों को।
जनसंख्या नियंत्रण बिल
आजादी के बाद से अब तक संसद में 35 बार जनसंख्या नियंत्रण बिल पेश किया जा चुका है। आज तक इसे लेकर कोई कानून नहीं बन पाया है। जनसंख्या नियंत्रण को लेकर पेश किए गए अब तक के बिल में टू चाइल्ड पॉलिसी को कानून के रूप में लागू करवाने की बात होती है। जो नागरिक कानून का उल्लंघन कर दो से अधिक बच्चे पैदा करें उन्हें सरकारी नौकरी, सरकारी योजनाओं और सरकारी छूट आदि लाभों से वंचित करने की मंशा होती है।
वर्तमान सरकार का रुख
केंद्र सरकार जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कानून बनाने की दिशा में फिलहाल कोई कदम नहीं उठा रही है। मंगलवार को स्वास्थ्य राज्य मंत्री भारती प्रवीण पवार ने राज्यसभा में बताया कि केंद्र जनसंख्या नियंत्रण को लेकर किसी भी विधायी उपाय पर विचार नहीं कर रही है। सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुरूप साल 2045 तक जनसंख्या को स्थिर करने की कोशिश कर रही। पवार ने प्रजनन दर में आयी कमी को रेखांकित करते हुए कहा है राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 की रिपोर्ट में 2019-21 में कुल प्रजनन दर घटकर 2.0 हो गई है।
क्या कहता है संविधान
संविधान पति-पत्नी को यह स्वतंत्रता देता है कि वह कितने बच्चे करना चाहते हैं यह वे खुद तय करें। दंपत्ति को यह अधिकार डिक्लेरेशन ऑन सोशल प्रोग्रेस एंड डेवलपमेंट के अनुच्छेद 22 के तहत मिलता है। बच्चों की संख्या को नियंत्रित करना अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक अधिकारों का हनन है। अनुच्छेद 21 जीवन की सुरक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार देता है।
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क्या कहते हैं विशेषज्ञ
कानून के जानकार वकील सूर्य प्रकाश बताते हैं कि भारत जैसे विविधता वाले देश में इस तरह का कानून लागू करना आसान नहीं होगा। कानून को बनाते वक्त तलाकशुदा जोड़ों के अधिकार और अलग-अलग धार्मिक समूहों की मान्यताओं का भी ध्यान रखना होगा। इन मसलों को सुलझाना आसान नहीं है। पहले भी कई बार ऐसे बिल आए लेकिन इन्हीं मुद्दों पर आलोचना के कारण कभी पास नहीं हो पाएं।