खोजी नारद……..जड़े हुये लेखनी के शब्द कभी मरते नहीं है, वो जिंदा रहकर भी दिमाग मे टीस जैसी कसक मारते है। जिसके लिए एक पत्रकार लिखता है वो पत्रकारिता का दायरा ही सीमित हो जाये तो कलम को एक कमरे मे बंद कर ताला मारना ही बेहतर होगा। उत्तराखंड में तो ऐसा ही महसूस हो रहा है खबरे सिर्फ डबल इंजन सरकार के मुखिया तक नहीं उनके कारिंदो के हाथो से अपनी हत्या करवा डस्टबीन मे दफन हो जाती है। उत्तराखंड सरकार के संवेदनशील मुखिया एक झोले मे अपना दायरा समेटे लगते है ऐसा सबको लगता है जबकि सच्चाई ये है कि उनके पॉलिश करने वाले भी सलाहकार हो गए तो पॉलिश करके ही खबरे और बातें अंदर जाती है।
राजधानी ऐसी हो गयी है कि यहाँ के लोग खुद को खानदानी समझ सरकार के रोल में नजर आते है। “ऐसा गया रावत सरकार में भी पूर्व में हुआ और आया रावत सरकार” में भी हो रहा है। सरकार के मुखिया के कारिंदे ऐसे है कि कोई दिल्ली वाला सरकार चला रहा है और कोई देहारादून वाला चपरासी बन कागज को अंदर बाहर हाकिम तक पहुंचा रहा है।
एंकर का काम स्क्रीन पर लिखे शब्दो को पढ़कर बोलना होता है और पत्रकार का काम फील्ड मे घूमकर चप्पले घिसकर खबरों की तह तक पंहुच कर उसको सत्यता के साथ प्रकाशित करना होता है। मेरी नजर मे तो चप्पले घिसने वाला सत्यता जानने वाला और सही खबरे प्रकाशित करने वाला ही उपयुक्त हो सकता है वो एंकर नहीं जिसने स्क्रीन पर शब्दो को पढ़ा और बोल दिया।
उत्तराखंड में एंकर बहुत नजर आने लगे है और वो सलाहकार बन टीपी मशीन वाले शब्दो को असल ज़िंदगी मे इस्तेमाल कर रहे है क्यूकि टीपी मशीन पर उल्टे शब्द लिखे जाते है और वो शीशे पर जब देखे जाते है तो वो शब्द सीधे नजर आते है। असल ज़िंदगी मे शीशा नहीं होता है तो वही शब्द उल्टे नजर आते है।
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खैर आप सभी सोचते होंगे कि खोजी नारद ज्ञान बहुत पेलता है स्टोरी के अंदर। अब आपको संछिप्त शब्दो मे बताते है कि उत्तराखंड के विकास के लिए कोई भी पत्रकार जब कुछ लिखता है और जब कोई घोटाला वो अपनी खबरों के माध्यम से उजागर करता है तो उसको ब्लैकमेलर बोला जाता है कि वो ब्लैकमेलिंग करने के लिए ऐसा खबर प्रकाशित कर रहा है। जबकि इसके उलट पत्रकारो को ब्लैकमेलर बोलने वाले मुझे ज्यादा ब्लैकमेलर नजर आते है क्यूकि वो जैसे खुद है, वो वैसा ही दूसरों को समझते है।
खोजी नारद द्वारा राजधानी देहरादून के ऐसे बहुत से मामलो के ऊपर खबर प्रकाशित की गयी है पर ऐसा क्या है कि गैंडे की खाल सस्ती हो गयी है और आला अधिकारी और कारिंदे उनके कपड़े बना कर पहनने लगे है, तभी से खबरों का असर कम हो गया है।
क्यूकि खोजी नारद का एक फलसफा है कि
थोड़ा लिखा और ज्यादा छोड़ दिया,
आने वालों के लिए रास्ता छोड़ दिया,
तुम क्या जानो उस दरियाँ पर क्या गुजरी,
तुमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया,
तेरी कैद से मै यू ही रिहा नहीं हो रहा,
मेरी ज़िंदगी तेरा हक़ अदा नहीं हो रहा,
मेरा इन राजनीतिक मौसमो से गिला ही फिज़ूल है,
इन्हे छूकर भी मै हरा नहीं हो रहा,
अब आगे कुछ लिखना बेमानी होगा और ज्यादा लिखना बद्जुबानी होगा, उत्तराखंड सरकार के हाकिम तक असरदार शब्द जोरदार बन जरूर पहुंचेंगे।