खूबसूरत मैकलोडगंज का इतिहास : हिमाचल प्रदेश में पर्यटन की बात आने पर मैकलोडगंज (Mcleodganj) का नाम सहज ही जुबां पर आ जाता है। इस अत्यन्त खूबसूरत स्थान पर करने को बहुत कुछ है। आप ट्रैकिंग कर सकते हैं और नदी-जलप्रपात के किनारे बेफिक्र होकर टहल सकते हैं। बोटिंग, हाइकिंग करने के बाद थकान हावी होने लगे तो कैम्पिंग कर सकते हैं। यहां के बाजर में घूमते हुए स्थानीय हस्तशिल्प उत्पादों को स्मृतिचिन्ह के तौर पर खरीद सकते हैं।
मैकलोडगंज कांगड़ा जिले में आता है जिसे महाभारत के युद्ध के बाद राजा सुशर्मा चन्द्र ने बसाया था। कांगड़ा कभी चन्द्र वंश की राजधानी हुआ करता था। तीन हजार साल पहले के कुछ ग्रन्थों के अलावा पुराणों, महाभारत और राजतरंगिणी में भी इसका उल्लेख है। राजा हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629 से 644 ईसवी के बीच चीन के शोधार्थी य़ात्री ह्वेन त्सांग ने यहां का दौरा किया था। उसने अपने यात्रा वृत्तांत और पत्रों में इसका उल्लेख किया है। उसके पत्रों के अनुसार, राजा हर्षवर्धन ने नगरकोट (कांगड़ा जिले का पुराना नाम) पर कब्जा कर लिया था।
नगरकोट उस समय त्रिगर्त या जालन्धर राज्य की राजधानी हुआ करती थी। इसके काफी बाद 1009 ईसवी में नगरकोट के धार्मिक खजाने पर महमूद गजनवी की नजर पड़ी और उसने यहां के शासकों को पराजित कर कांगड़ा किले पर कब्जा कर लिया और जमकर लूटपाट की। लूटपाट का यह क्रम 1360 ईसवी तक चलता रहा। 1556 ईसवी में मुगल बादशाह जहांगीर ने कांगड़ा किले पर कब्जा कर लिया। इसके अलावा भी कई राजाओं ने समय-समय पर कांगड़ा पर शासन किया।
ब्रिटिश काल के दौरान 1885 ईसवी में इस स्थान का नाम पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे सर डोनाल्ड फ्रील मैकलियोड के नाम पर रखा गया। दरअसल, 21 मार्च 1862 से 20 नवम्बर 1863 तक लॉर्ड एल्गिन भारत के ब्रिटिश वायसराय थे। इस स्थान की सैर करने पर उन्हें यह जगह स्कॉटलैण्ड में स्थित अपने गृहनगर के जैसी लगी और उन्होंने इसका नाम मैकलोडगंज रखा दिया। लॉर्ड एल्गिन की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को फोर्सिथगंज में स्थित सेन्ट जॉन्स चर्च में दफनाया गया। 1905 ईसवी में आये भूकम्प ने कांगड़ा के साथ-साथ मैकलोडगंज को भी तबाह कर दिया। दलाई लामा के आगमन के बाद यह शहर धीरे-धीरे फिर बसने लगा। मैकलोडगंज में भले ही तिब्बती सभ्यता-संस्कृति का व्यापक प्रभाव हो पर इसके आसपास के स्थानों पर हिन्दू धर्म का प्रभाव है। 51 शक्तिपीठों में से एक ज्वालादेवी शक्तिपीठ यहां से बमुश्किल 60 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा भी यहां कई प्रसिद्ध मन्दिर हैं।