उत्तराखंड : दीपावली के 11वें दिन एकादशी पर उत्तराखंड में करीब चार शताब्दियों से लोकपर्व इगास यानी बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा है।
यह पारंपरिक इगास पर्व आज भी प्रदेश भर में धूमधाम से मनाया जा रहा है। मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे।
17वीं शताब्दी यानी करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा।
इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, लेकिन इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस नहीं लौट सका।
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सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली इस क्षेत्र में (बग्वाळ) नहीं मनाई।
लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत कर पूरी शान के साथ वापस लौट आए, तो उस रात को दीपकों से पूरे क्षेत्र को रोशन कर दीपावली को इगास पर्व के रूप में मनाया गया।
उसके बाद इसी खुशी में पूरे गढ़वाल क्षेत्र में इगास के नाम से बूढी दीपावली मानाने की परम्परा शुरू हो गयी जो आज भी जारी है।
दीपावली के बाद एकदशी के दिन इसीलिए उत्तराखंड में यह इगास पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है।
इस दिन भी दिवाली की तरह पूरे विधि विधान से भैला पूजन किया जाता है खास बात ये है कि यह पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है।
तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है।
बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं।
भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं। पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं।
वहीं उत्तराखंड के कुमाऊं के क्षेत्र में यह मान्यता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे, तो लोगों ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया।
कहा जाता है कि कुमाऊं क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए यहां पर दिवाली के 11 दिन बाद यह इगास मनाई जाती है।
एक और ख़ास बात यह भी है कि उत्तराखंड में उन परिवारों को दीपावली मानाने का मौक़ा मिलता है। जिनके घर परिवारों में किसी व्यक्ति के मृत्यु के बाद साल भर तक कोई शुभ कार्य या पर्व नहीं मनाए जाते हैं।
इसमें मृत व्यक्ति के श्राद्ध के बाद सबसे बड़े त्यौहार दीपावली पर भी यह बंदिश होती है।
ऐसे में इगास के साथ ऐसे परिवारों में शुभकार्य करने और त्योहारों को मानाने की परम्परा शुरू हो जाती है।
इसी दिन प्रबोधनी एकदाशी के रूप में भी यह पूजा पाठ की परम्परा बेहद सुखद और शुभ मानी जाती है।