मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कुंजा बहादुरपुर (रुड़की) में 1822- 24 की क्रांति के दौरान शहीद हुए राजा विजय सिंह, सेनापति कल्याण सिंह और सभी 152 शहीदों के 200 वें बलिदान दिवस के अवसर पर उपस्थित होकर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने कहा कि देश की आजादी से पूर्व दिया गया इस तरह का सर्वस्व बलिदान बहुत प्रेरणादायक है और आने वाली पीढ़ी को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए, साथ ही स्मरण रखना चाहिए कि आजादी बहुत बड़े संघर्ष और बलिदान के उपरांत मिली है।
शहीद क्रांतिकारी राजा विजय सिंह सेनापति कल्याण सिंह को नमन – धामी
सामान्यत : भारत में स्वाधीनता के संघर्ष को 1857 से प्रारम्भ माना जाता है; पर सत्य यह है कि जब से विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण भारत पर होने लगे, तब से ही यह संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। भारत के स्वाभिमानी वीरों ने मुगल, तुर्क, हूण, शक, पठान, बलोच और पुर्तगालियों से लेकर अंग्रेजों तक को धूल चटाई है। ऐसे ही एक वीर थे राजा विजय सिंह। उत्तराखंड राज्य में हरिद्वार एक विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहां पर ही गंगा पहाड़ों का आश्रय छोड़कर मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है। इस जिले में एक गांव है कुंजा बहादुरपुर। यहां के बहादुर राजा विजय सिंह ने 1857 से बहुत पहले 1824 में ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया था।
कुंजा बहादुरपुर उन दिनों लंढौरा रियासत का एक भाग था। इसमें उस समय 44 गांव आते थे। 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह के देहांत के बाद रियासत की बागडोर उनके पुत्र राजा विजय सिंह ने संभाली। उन दिनों प्रायः सभी भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे; पर गंगापुत्र राजा विजय सिंह किसी और ही मिट्टी के बने थे। राजा विजय सिंह ने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों के आगे सिर झुकाने की बजाय उन्हें अपनी रियासत से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया। वीर सेनापति कल्याण सिंह भी राजा के दाहिने हाथ थे। 1822 ई. में सेनापति के सुझाव पर राजा विजय सिंह ने अपनी जनता को आदेश दिया कि वे अंग्रेजों को मालगुजारी न दें, ब्रिटिश राज्य के प्रतीक सभी चिन्हों को हटा दें, तहसील के खजानों को अपने कब्जे में कर लें तथा जेल से सभी बन्दियों को छुड़ा लें। जनता भी अपने राजा और सेनापति की ही तरह देशाभिमानी थी। उन्होंने इन आदेशों का पालन करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।
अंग्रेजों ने सोचा कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो सब ओर विद्रोह फैल जाएगा। अतः सबसे पहले उन्होंने राजा विजय सिंह को समझा बुझाकर उसके सम्मुख सन्धि का प्रस्ताव रखा; पर स्वाभिमानी राजा ने इसे ठुकरा दिया। अब दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। सात सितम्बर, 1824 की रात को अंग्रेजों ने गांव कुंजा बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। उनकी सेना में अनेक युद्ध लड़ चुकी गोरखा रेजिमेंट की नौवीं बटालियन भी शामिल थी। राजा विजय सिंह और सेनापति कल्याण सिंह जानते थे कि अंग्रेजों के पास सेना बहुत अधिक है तथा उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी आधुनिक प्रकार के हैं; पर उन्होंने झुकने की बजाय संघर्ष करने का निर्णय लिया। राजा विजय सिंह के नेतृत्व में गांव के वीर युवकों ने कई दिन तक मोर्चा लिया; पर अंततः तीन अक्तूबर, 1824 को राजा को युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त हुई।
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इससे अंग्रेज सेना मनमानी पर उतर आयी। उन्होंने गांव में जबरदस्त मारकाट मचाते हुए महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े.. किसी पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। गांव में स्थित सुनहरा केवट वृक्ष पर लटका कर एक ही दिन में 152 लोगों को फांसी दे दी गयी। इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।
कैसा आश्चर्य है कि दो-चार दिन की जेल काटने वालों को स्वाधीनता सेनानी प्रमाण पत्र और पेंशन दी गयी; पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले राजा विजय सिंह और कुंजा बहादुरपुर के बहादुरों को कोई याद भी नहीं करता। भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे। जबकि ब्रिटिश सेना के पास उस समय की आधुनिक रायफल (303 बोर) और कारबाइने थी। इस पर भी भारतीय बडी बहादुरी से लडे, और उन्हौनें आखिरी सांस तक अंग्रेजो का मुकाबला किया। ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी अमरता को प्राप्त 40 गिरफ्तार किये गये। लेकिन वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा। ओर युद्व के बाद उन्हौने कंुजा के किले की दिवारों को भी गिरा दिया। ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुँची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह काा सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गयें।
ये तोपे देहरादून के परेडस्थल पर रख दी गयी। भारतीयों को आंतकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याणसिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्व की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी। कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न दबवाया गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। आज आज़ादी के उस महानायक को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनके यशगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प पूरा कुंजा गांव दोहराता है।