देवभूमि के गिर्दा थे अनोखी शख्सियत : उत्तराखंड की शख्सियतों में एक नाम बड़े आदर से लिया जाता है और वो नाम है गिरीश तिवारी गिर्दा का। भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जन्मे गिर्दा एक फक्कड़ ग्रामीण गवैया थे. अल्मोड़ा शहर में आने के बावजूद उनके भीतर का ग्रामीण नहीं मरा. वो जय जगदीश हरे के संस्कारों को लेकर पैदा तो हुए पर जीया जन की परंपरा का जीवन. गिर्दा को गीतों की प्रेरणा मोहन सिंह रीठागाड़ी, केशव अनुरागी और गोपीदास सरीखे लोकगायकों से मिली. गिर्दा एक बार घर से भागे पर ऐसी जगह जहां पहाड़ का कोई आदमी भागकर नहीं जाता. वो पीलीभीत गये और वहां अपनी जीविका के लिये रिक्शा चलाया. वो कहते थे कि रिक्शा चलाना हल चलाने जैसा ही तो हुआ।
गिर्दा को जीवन भर एक रोग लगा रहा. संपत्ति न जोड़ने का रोग. उसकी आवश्यकताएं हमेशा न्यूनतम रही. एक कुर्ता पहना, झोला लटकाया और निकल पड़ा. कुछ समय पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने के बाद सन 67 में वो संगीत एवं नाटक प्रभाग से जुड़े. उस दौर में उसने मोहिल माटी जैसे नाटकों का लालकिले में मंचन किया. विजेंद्र लाल शाह, पंचानन पाठक, कर्नल गुप्ते और लेनिन पंत जैसे संस्कृतिकर्मियों का साथ उन्हें मिला. सन 77 के दौर तक गिर्दा के सांस्कृतिक जीवन का रूपांतरण हो चुका था. वहीं से वो विकसित रंगकर्मी के रूप में उभरे और अब तक की पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया में वो एक मिथक बन गये. उन्होंने नैनीताल की निर्ममता को इस तरह बदला कि पूरा नैनीताल सड़क पर आने को विवश हो गया।
उन्हें केवल हिमालयी अंचल का मानना उन्हें छोटा करके देखना होगा. उन्होंने अपनी बाहर की खिड़कियां हमेशा खुली रखी. युगमंच, नैनीताल समाचार, उत्तरा जैसी कई शुरुआतें उनके बिना न हुई होती. गिर्दा एक छुपे हुए पत्रकार भी थे. भागीरथी में आयी बाढ़ के दौर में उनका वो पत्रकार बाहर आया. बाबा नागार्जुन और उनके बीच एक फक्कड़ दोस्ती हुआ करती थी. वो दोनों एक ही बीड़ी को चूस चूस कर पीते. जहां एक ओर चंडीप्रसाद भट्ट, राधाबहन और शमशेर सिंह बिष्ट जैसे राजनीतिक कार्यकर्ता उनके मित्र थे, वही दूसरी ओर गीतकार नीरज जैसी शख्सीयतों से उनकी दोस्ती थी।
झूसिया दमाई पर किया गया उनका काम उनकी रचनात्मकता का एक छोटा सा नमूना है. घोर अव्यवस्थित और अनियमित जीवनशैली के बीच भी अपने काम के लिए उनमें गजब का अनुशासन था. वो अपने आसपास के समाज को लेकर हमेशा चिंतित रहे और ये चिंताएं मुख्यत: तीन बिंदुओं पर केंद्रित रहीं. उत्तराखंड बनने की प्रक्रिया की दृष्टिहीनता एवं लक्ष्यहीनता, वामपंथी एवं जनपक्षधर ताकतों में उभरा विखंडन और जनांदोलनों के साथियों के बीच पनपी संवादहीनता. किसी काम की शुरुआत के बाद स्वयं पृष्ठभूमि में चले जाना उनकी आदत थी. ऐसे में उन्होंने समाज के बीच हमेशा खाद की तरह काम किया।