भारत को कभी भी एक ‘पुलिस स्टेट’ नहीं बनना चाहिए, जहां जांच एजेंसियां औपनिवेशिक युग की तरह काम करें। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। अदालत ने केंद्र सरकार से बेल की ग्रांट को लेकर नया कानून बनाने पर विचार करने को कहा ताकि गैरजरूरी गिरफ्तारियों को लेकर क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में पारदर्शिता को बढ़ावा मिले। खास तौर से उन मामलों में जहां दोषी पाए जाने पर अधिकतम सात साल की जेल का प्रावधान है।
जस्टिस संजय किशन कौल और एमएम सुंद्रेश की बेंच ने इसे लेकर चिंता जताई कि देश में जेलें अंडर-ट्रायल कैदियों से भरी हुई हैं। पुलिस ने बहुत सारी गिरफ्तारियां रूटीन मामलों में की हैं। ऐसे में अदालतों का समय ‘निगेटिव सेंस’ में जमानत याचिकाओं की सुनवाई करने में ही गुजर रहा है।
आपराधिक मामलों में सजा की दर बहुत कम’
बेंच ने कहा, “भारत में आपराधिक मामलों में सजा की दर बहुत कम है। ऐसा मालूम होता है कि जमानत याचिकाओं पर फैसला सुनाते समय यह फैक्टर न्यायालय के दिमाग पर असर डालता है। अदालतें यह सोचती हैं कि दोषसिद्धि की संभावना बहुत कम है। जमानत याचिकाओं पर कानूनी सिद्धांतों के विपरीत सख्ती से निर्णय लेना होगा।”
CRPC की धारा 41-A का पालन जरूरी‘
पीठ ने कहा कि जांच एजेंसियां और उनके अधिकारी आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41-ए (आरोपी को पुलिस अधिकारी के समक्ष पेश होने का नोटिस जारी करना) का पालन करने के लिए बाध्य हैं। अदालत ने सभी उच्च न्यायालयों से उन विचाराधीन कैदियों का पता लगाने को भी कहा, जो जमानत की शर्तों को पूरा करने में समर्थ नहीं हैं। न्यायालय ने ऐसे कैदियों की रिहाई में मदद के लिए उचित कदम उठाने का भी निर्देश दिया।
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चार महीने में रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश
सर्वोच्च अदालत ने सभी उच्च न्यायालयों और राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों की सरकारों से चार महीने में इस संबंध में स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने को कहा। न्यायालय ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की ओर से एक व्यक्ति की गिरफ्तारी से जुड़े मामले की सुनवाई कर रहा था, जिस पर फैसला सुनाए जाने के दौरान ये दिशा-निर्देश जारी किए।